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तन्नः॑ प्र॒त्नं स॒ख्यम॑स्तु यु॒ष्मे इ॒त्था वद॑द्भिर्व॒लमङ्गि॑रोभिः। हन्न॑च्युतच्युद्दस्मे॒षय॑न्तमृ॒णोः पुरो॒ वि दुरो॑ अस्य॒ विश्वाः॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tan naḥ pratnaṁ sakhyam astu yuṣme itthā vadadbhir valam aṅgirobhiḥ | hann acyutacyud dasmeṣayantam ṛṇoḥ puro vi duro asya viśvāḥ ||

पद पाठ

तत्। नः॒। प्र॒त्नम्। स॒ख्यम्। अ॒स्तु॒। यु॒ष्मे इति॑। इ॒त्था। वद॑त्ऽभिः। व॒लम्। अङ्गि॑रःऽभिः। हन्। अ॒च्यु॒त॒ऽच्यु॒त्। द॒स्म॒। इ॒षय॑न्तम्। ऋ॒णोः। पुरः॑। वि। दुरः॑। अ॒स्य॒। विश्वाः॑ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:18» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को परस्पर कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे न्यायकारी राजा आदि जनो ! आप लोगों के साथ (नः) हम लोगों की जैसे (तत्) वह (प्रत्नम्) प्राचीन (सख्यम्) मित्रता (अस्तु) हो (इत्था) इससे जैसे (युष्मे) आप लोगों के (वदद्भिः) कहते हुओं के साथ हम लोगों की मित्रता हो और जैसे (अङ्गिरोभिः) पवनों के साथ (अच्युतच्युत्) नहीं चञ्चल अर्थात् स्थिर को चञ्चल करनेवाला सूर्य्य (वलम्) मेघ का (हन्) नाश करता है, वैसे हे (दस्म) दुःख के नाश करनेवाले (इषयन्तम्) प्राप्त हुए वा जाते हुए को आप (ऋणोः) सिद्ध करिये और जैसे (अस्य) इस जगत् के (दुरः) द्वारों को सूर्य्य प्रकाशित करता है, वैसे आप (विश्वाः) सम्पूर्ण (पुरः) नगरियों को (वि) विशेष करके सिद्ध करिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि यथाशक्ति उत्तमों के साथ मित्रता ही करें, वह कभी नष्ट न होवे, ऐसा प्रयत्न करें और जैसे सूर्य्य सब को प्रकाशित करता है, वैसे राजा न्याय से सम्पूर्ण राज्य को प्रकाशित करे ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे न्यायकारिणो राजादयो जना युष्माभिः सह नोऽस्माकं यथा यत्प्रत्नं सख्यमस्त्वित्था युष्मे वदद्भिः सहास्माकं सख्यमस्तु। यथाऽङ्गिरोभिस्सहाऽच्युतच्युत्सूर्य्यो वलं हंस्तथा हे दस्मेषयन्तं त्वमृणोर्यथास्य जगतो दुरः सविता प्रकाशयति तथा त्वं विश्वाः पुरो वृणोः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) (नः) अस्माकम् (प्रत्नम्) पुरातनम् (सख्यम्) सखीनां कर्म्म (अस्तु) (युष्मे) युष्माकम् (इत्था) अस्मादिव (वदद्भिः) (बलम्) मेघम्। बल इति मेघनाम। (निघं०१.१०) (अङ्गिरोभिः) वायुभिः (हन्) हन्ति (अच्युतच्युत्) योऽच्युतमचलन्तं च्यावयति (दस्म) दुःखोपक्षयितः (इषयन्तम्) प्राप्नुवन्तं गच्छन्तं वा (ऋणोः) प्रसाध्नुयाः (पुरः) (वि) (दुरः) द्वाराणि (अस्य) जगतः (विश्वाः) सर्वाः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्य्यावच्छक्यं तावदुत्तमैः सह मित्रतैव कार्य्या, सा कदाचिन्न नश्येदेवं प्रयतितव्यं यथा च सूर्य्यः सर्वं प्रकाशयति तथा राजा न्यायेन सर्व राज्यं प्रकाशयेत् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी यथाशक्ती उत्तम लोकांबरोबर मैत्री करावी. ती कधी नष्ट होणार नाही असा प्रयत्न करावा. जसा सूर्य सर्वांना प्रकाशित करतो तसे राजाने न्यायाने संपूर्ण राज्य चालवावे. ॥ ५ ॥